अंतरराष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र का प्रधान न्यायिक अंग है और इस संघ के पांच मुख्य अंगों में से एक है। इसकी स्थापना संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणा पत्र के अंतर्गत हुई है। इसका उद्घाटन अधिवेशन 18 अप्रैल 1946 ई. को हुआ था। इस न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालयकी जगह ले ली थी। न्यायालय हेग में स्थित है और इसका अधिवेशन छुट्टियों को छोड़ सदा चालू रहता है। न्यायालय के प्रशासन व्यय का भार संयुक्त राष्ट्रसंघ पर है।
1980 तक अंतर्राष्ट्रीय समाज इस न्यायालय का ज़्यादा प्रयोग नहीं करती थी, पर तब से अधिक देशों ने, विशेषतः विकासशील देशों ने, न्यायालय का प्रयोग करना शुरू किया है। फ़िर भी, कुछ अहम राष्ट्रों ने, जैसे कि संयुक्त राज्य, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों को निभाना नहीं समझा हुआ है। ऐसे देश हर निर्णय को निभाने का खुद निर्णय लेते है।
इतिहास
स्थायी अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की कल्पना उतनी ही सनातन है जितनी अंतरराष्ट्रीय विधि, परंतु कल्पना के फलीभूत होने का काल वर्तमान शताब्दी से अधिक प्राचीन नहीं है। सन् 1899 ई. में, हेग में, प्रथम शांति सम्मेलन हुआ और उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप स्थायी विवाचन न्यायालय की स्थापना हुई। सन् 1907 ई. में द्वितीय शांति सम्मेलन हुआ और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार न्यायालय (इंटरनेशनल प्राइज़ कोर्ट) का सृजन हुआ जिससे अंतरराष्ट्रीय न्याय प्रशासन की कार्य प्रणाली तथा गतिविधि में विशेष प्रगति हुई। तदुपरांत 30 जनवरी 1922 ई. को लीग ऑव नेशंस के अभिसमय के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का विधिवत् उद्घाटन हुआ जिसका कार्यकाल राष्ट्रसंघ (लीग ऑव नेशंस) के जीवनकाल तक रहा। अंत में वर्तमान अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना संयुक्त राष्ट्रसंघ की अंतरराष्ट्रीय न्यायालय संविधि के अंतर्गत हुई।
सदस्य
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में समान्य सभा द्वारा 15 न्यायाधीश चुने चाते है। यह न्यायाधीश नौ साल के लिए चुने जाते है और फ़िर से चुने जा सकते है। हर तीसरे साल इन 15 न्यायाधीशों में से पांच चुने जा सकत्ते है। कोई भी दो न्यायाधीश एक ही राष्ट्र के नहीं हो सकते है और किसी न्यायाधीश की मौत पर उनकी जगह किसी समदेशी को दी जाती है। इन न्यायाधीशों को किसी और ओहदा रखना मना है। किसी एक न्यायाधीश को हटाने के लिए बाकी के न्यायाधीशों का सर्वसम्मत निर्णय जरूरी है। न्यायालय द्वारा सभापति तथा उपसभापति का निर्वाचन और रजिस्ट्रार की नियुक्ति होती है।
न्यायालय में न्यायाधीशों की कुल संख्या 15 है, गणपूर्ति संख्या नौ है। निर्णय बहुमत निर्णय के अनुसार लिए जाते है। बहुमत से सहमती न्यायाधीश मिलकर एक विचार लिख सकते है, या अपने विचार अलग से लिख सकते है। बहुमत से विरुद्ध न्यायाधीश भी अपने खुद के विचार लिख सकते है।
तदर्थ न्यायाधीश
जब किसी दो राष्ट्रों के बीच का संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के सामने आता है, वे राष्ट्र चाहे तो किसी समदेशी तदर्थ न्यायाधीश को नामजद कर सक्ती हैं। इस प्रक्रिया का कारण था कि वह देश जो न्यायालय में प्रतिनिधित्व नहीं है भी अपने संधर्षों के निर्णय अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को लेने दे।
क्षेत्राधिकार
अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय संविधि में सम्मिलित समस्त राष्ट्र अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकते हैं। इसका क्षेत्राधिकार संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र अथवा विभिन्न; संधियों तथा अभिसमयों में परिगणित समस्त मामलों पर है। अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय संविधि में सम्मिलत कोई राष्ट्र किसी भी समय बिना किसी विशेष प्रसंविदा के किसी ऐसे अन्य राष्ट्र के संबंध में, जो इसके लिए सहमत हो, यह घोषित कर सकता है कि वह न्यायालय के क्षेत्राधिकार को अनिवार्य रूप में स्वीकार करता है। उसके क्षेत्राधिकार का विस्तार उन समस्त विवादों पर है जिनका संबंध संधिनिर्वचन, अंतरर्राष्ट्रीय विधि प्रश्न, अंतरर्राष्ट्रीय आभार का उल्लंघन तथा उसकी क्षतिपूर्ति के प्रकार एवं सीमा से है।
अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय को परामर्श देने का क्षेत्राधिकार भी प्राप्त है। वह किसी ऐसे पक्ष की प्रार्थना पर, जो इसका अधिकारी है, किसी भी विधिक प्रश्न पर अपनी सम्मति दे सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अभियोग दो तरह के होते है : विवादास्पद विषय तथा परामर्शी विचार।
विवादास्पद विषय
इस तरह के मुकदमों में दोनो राज्य के लिए न्यायालय का निर्णय निभाना आवश्यक होता है। केवल राज्य ही विवादास्पद विषयों में शामिल हो सक्ते हैं : व्यक्यियां, गैर सरकारी संस्थाएं, आदि ऐसे मुकदमों के हिस्से नहीं हो सकते हैं। ऐसे अभियोगों का निर्णय अंतराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा तब ही हो सकता है जब दोनो देश सहमत हो। इस सहमति को जताने के चार तरीके हैं :
1. विशेष संचिद : ऐसे मुकदमों में दोनो देश अपने आप निर्णय लेना अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपते हैं।
2. माध्यमार्ग : आज-कल की संधियों में अक्सर एक शर्त डाली जाती है जिसके अनुसार, अगर उस संधि के बारे में कोई संघर्ष उठे, तो अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को निर्णय लेने का अधिकार है।
3. ऐच्छिक घोषणा : राज्यों को अधिकार है कि वे चाहे तो न्यायालय के हर निर्णय को पहले से ही स्वीकृत करें।
4. अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय का अधिकार : क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय की जगह ली थी, जो भी मुकदमें अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में थे, वे सब अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में भी हैं।
परामर्शी विचार
परामर्शी विचार दूसरा तरीका है किसी मुकदमें को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय तक पहुंचाने का। यह निर्णय सिर्फ न्यायालय की राय होते है, पर इन विचारों के सम्मान के कारण वह बहुत प्रभावशाली होते हैं।
प्रक्रिया
अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय की प्राधिकृत भाषाएँ फ्रेंच तथा अंग्रेजी है। विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व अभिकर्ता द्वारा होता है; वकीलों की भी सहायता ली जा सकती है। न्यायालय में मामलों की सुनवाई सार्वजनिक रूप से तब तक होती है जब तक न्यायालय का आदेश अन्यथा न हो। सभी प्रश्नों का निर्णय न्यायाधीशों के बहुमत से होता है। सभापति को निर्णायक मत देने का अधिकार है। न्यायालय का निर्णय अंतिम होता है, उसकी अपील नहीं हो सकती किंतु कुछ मामलों में पुनर्विचार हो सकता है। (अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय संविधि, अनुच्छेद 39-64)।
प्रवर्तन
संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का धर्म है कि वे अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय के अनुसार आगे बढें। अगर कोई देश इन निर्णयों को स्वीकृत न करे, तो प्रवर्तन की जिम्मेदारी सुरक्षा परिषद पर पड़ती है। फिर सुरक्षा परिषद जैसे चाहे वैसे निर्णय या सिफ़ारिश घोषित कर सकता है।
1980 तक अंतर्राष्ट्रीय समाज इस न्यायालय का ज़्यादा प्रयोग नहीं करती थी, पर तब से अधिक देशों ने, विशेषतः विकासशील देशों ने, न्यायालय का प्रयोग करना शुरू किया है। फ़िर भी, कुछ अहम राष्ट्रों ने, जैसे कि संयुक्त राज्य, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों को निभाना नहीं समझा हुआ है। ऐसे देश हर निर्णय को निभाने का खुद निर्णय लेते है।
इतिहास
स्थायी अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की कल्पना उतनी ही सनातन है जितनी अंतरराष्ट्रीय विधि, परंतु कल्पना के फलीभूत होने का काल वर्तमान शताब्दी से अधिक प्राचीन नहीं है। सन् 1899 ई. में, हेग में, प्रथम शांति सम्मेलन हुआ और उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप स्थायी विवाचन न्यायालय की स्थापना हुई। सन् 1907 ई. में द्वितीय शांति सम्मेलन हुआ और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार न्यायालय (इंटरनेशनल प्राइज़ कोर्ट) का सृजन हुआ जिससे अंतरराष्ट्रीय न्याय प्रशासन की कार्य प्रणाली तथा गतिविधि में विशेष प्रगति हुई। तदुपरांत 30 जनवरी 1922 ई. को लीग ऑव नेशंस के अभिसमय के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का विधिवत् उद्घाटन हुआ जिसका कार्यकाल राष्ट्रसंघ (लीग ऑव नेशंस) के जीवनकाल तक रहा। अंत में वर्तमान अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना संयुक्त राष्ट्रसंघ की अंतरराष्ट्रीय न्यायालय संविधि के अंतर्गत हुई।
सदस्य
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में समान्य सभा द्वारा 15 न्यायाधीश चुने चाते है। यह न्यायाधीश नौ साल के लिए चुने जाते है और फ़िर से चुने जा सकते है। हर तीसरे साल इन 15 न्यायाधीशों में से पांच चुने जा सकत्ते है। कोई भी दो न्यायाधीश एक ही राष्ट्र के नहीं हो सकते है और किसी न्यायाधीश की मौत पर उनकी जगह किसी समदेशी को दी जाती है। इन न्यायाधीशों को किसी और ओहदा रखना मना है। किसी एक न्यायाधीश को हटाने के लिए बाकी के न्यायाधीशों का सर्वसम्मत निर्णय जरूरी है। न्यायालय द्वारा सभापति तथा उपसभापति का निर्वाचन और रजिस्ट्रार की नियुक्ति होती है।
न्यायालय में न्यायाधीशों की कुल संख्या 15 है, गणपूर्ति संख्या नौ है। निर्णय बहुमत निर्णय के अनुसार लिए जाते है। बहुमत से सहमती न्यायाधीश मिलकर एक विचार लिख सकते है, या अपने विचार अलग से लिख सकते है। बहुमत से विरुद्ध न्यायाधीश भी अपने खुद के विचार लिख सकते है।
तदर्थ न्यायाधीश
जब किसी दो राष्ट्रों के बीच का संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के सामने आता है, वे राष्ट्र चाहे तो किसी समदेशी तदर्थ न्यायाधीश को नामजद कर सक्ती हैं। इस प्रक्रिया का कारण था कि वह देश जो न्यायालय में प्रतिनिधित्व नहीं है भी अपने संधर्षों के निर्णय अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को लेने दे।
क्षेत्राधिकार
अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय संविधि में सम्मिलित समस्त राष्ट्र अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकते हैं। इसका क्षेत्राधिकार संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र अथवा विभिन्न; संधियों तथा अभिसमयों में परिगणित समस्त मामलों पर है। अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय संविधि में सम्मिलत कोई राष्ट्र किसी भी समय बिना किसी विशेष प्रसंविदा के किसी ऐसे अन्य राष्ट्र के संबंध में, जो इसके लिए सहमत हो, यह घोषित कर सकता है कि वह न्यायालय के क्षेत्राधिकार को अनिवार्य रूप में स्वीकार करता है। उसके क्षेत्राधिकार का विस्तार उन समस्त विवादों पर है जिनका संबंध संधिनिर्वचन, अंतरर्राष्ट्रीय विधि प्रश्न, अंतरर्राष्ट्रीय आभार का उल्लंघन तथा उसकी क्षतिपूर्ति के प्रकार एवं सीमा से है।
अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय को परामर्श देने का क्षेत्राधिकार भी प्राप्त है। वह किसी ऐसे पक्ष की प्रार्थना पर, जो इसका अधिकारी है, किसी भी विधिक प्रश्न पर अपनी सम्मति दे सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अभियोग दो तरह के होते है : विवादास्पद विषय तथा परामर्शी विचार।
विवादास्पद विषय
इस तरह के मुकदमों में दोनो राज्य के लिए न्यायालय का निर्णय निभाना आवश्यक होता है। केवल राज्य ही विवादास्पद विषयों में शामिल हो सक्ते हैं : व्यक्यियां, गैर सरकारी संस्थाएं, आदि ऐसे मुकदमों के हिस्से नहीं हो सकते हैं। ऐसे अभियोगों का निर्णय अंतराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा तब ही हो सकता है जब दोनो देश सहमत हो। इस सहमति को जताने के चार तरीके हैं :
1. विशेष संचिद : ऐसे मुकदमों में दोनो देश अपने आप निर्णय लेना अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपते हैं।
2. माध्यमार्ग : आज-कल की संधियों में अक्सर एक शर्त डाली जाती है जिसके अनुसार, अगर उस संधि के बारे में कोई संघर्ष उठे, तो अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को निर्णय लेने का अधिकार है।
3. ऐच्छिक घोषणा : राज्यों को अधिकार है कि वे चाहे तो न्यायालय के हर निर्णय को पहले से ही स्वीकृत करें।
4. अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय का अधिकार : क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय की जगह ली थी, जो भी मुकदमें अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में थे, वे सब अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में भी हैं।
परामर्शी विचार
परामर्शी विचार दूसरा तरीका है किसी मुकदमें को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय तक पहुंचाने का। यह निर्णय सिर्फ न्यायालय की राय होते है, पर इन विचारों के सम्मान के कारण वह बहुत प्रभावशाली होते हैं।
प्रक्रिया
अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय की प्राधिकृत भाषाएँ फ्रेंच तथा अंग्रेजी है। विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व अभिकर्ता द्वारा होता है; वकीलों की भी सहायता ली जा सकती है। न्यायालय में मामलों की सुनवाई सार्वजनिक रूप से तब तक होती है जब तक न्यायालय का आदेश अन्यथा न हो। सभी प्रश्नों का निर्णय न्यायाधीशों के बहुमत से होता है। सभापति को निर्णायक मत देने का अधिकार है। न्यायालय का निर्णय अंतिम होता है, उसकी अपील नहीं हो सकती किंतु कुछ मामलों में पुनर्विचार हो सकता है। (अंतरर्राष्ट्रीय न्यायालय संविधि, अनुच्छेद 39-64)।
प्रवर्तन
संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का धर्म है कि वे अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय के अनुसार आगे बढें। अगर कोई देश इन निर्णयों को स्वीकृत न करे, तो प्रवर्तन की जिम्मेदारी सुरक्षा परिषद पर पड़ती है। फिर सुरक्षा परिषद जैसे चाहे वैसे निर्णय या सिफ़ारिश घोषित कर सकता है।
No comments:
Post a Comment